महिला सशक्तिकरण क्रान्ति
दुनियाँ की लगभग आधी आबादी अर्थात महिलाएँ ही यदि सशक्त नहीं होंगी तो दुनियाँ के सशक्त होने की कल्पना करना भी व्यर्थ हो जाएगी ।
देश व दुनियाँ की आधी आबादी महिलाओं की है और जहाँ –जहाँ यह अनुपात ऊपर-नीचे होता है वहाँ-वहाँ की सामाजिक, वैवाहिक व्यवस्था बिगड़ने लगती है | लगभग सभी देशों की सरकारें इस अनुपात को बराबर बनाएं रखने के लिये तुरन्त एक्शन में आ जाती हैं जिससे यह महसूस होता है कि देश व दुनियाँ को इस आधी आबादी की कितनी चिन्ता है । यह एक पहलू है और वह भी सुखद पहलू जो कितना लुभावना, सुहावना लग रहा है और सिक्के के दूसरे पहलू पर गौर करें तो वह डराने वाला, अन्धकारमय, शाह काला है । जिससे इस पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को मान-सम्मान अधिकार के नाम पर केवल और केवल लुभावने वादें दिये ये कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगा कि उन्हें बचपन से ही प्रताड़ना सहने व ग़ुलामी करने की आदत डाल दी जाती है और दुर्भाग्य की बात यह है कि ये आदतें उसके अपने नाम, स्थान, माता-पिता के घर पर डाली जाती है जहाँ पर वो एक पिता की लाड़ली होती है, माँ की दुलारी और एक भाई की प्यारी होती है । चिरकाल से आजतक ऐसा ही होता आ रहा है । स्त्रियों की इस स्थिति को देखकर विनोबा भावे जी बहुत दुःखी होते थे ।
महिलायें परिपूर्ण बनें (विनोबा जी)
स्त्री और पुरूष दोनों के जीवन का उद्देश्य एक ही है- परिपूर्णता प्राप्त करना । स्त्री को स्त्री और पुरूष, दोनों बनना पड़ेगा और पुरूष को पुरूष और स्त्री दोनों बनना पड़ेगा । तभी दोनों का पूर्ण विकास होगा । परिपूर्ण बनने की पद्धति होती है
स्त्रियाँ स्वःरक्षित हैं-
सदियों से माना गया है कि स्त्रियों की रक्षा का भार पुरूषों पर है जब तक यह भावना, यह मान्यता कायम रहेगी तब तक सही अर्थों में स्त्रियों की रक्षा होना असम्भव है । वास्तव में स्त्री की रक्षा की ज़रूरत मानना ही ग़लत है फिर भी वैसा माना गया, क्योंकि उसके हिसाब से पर्याप्त साधन नहीं हैं । स्त्री रक्ष्य ही समझी गई, अर्थात इसमें हिंसा की प्रतिष्ठा स्वीकार की गई, अहिंसक समाज में स्त्री रक्ष्य नहीं रहेगी । स्वःरक्षित होगी । अहिंसा का प्रयोग करने में ही स्त्रियाँ अग्रसर हो सकती हैं ।
स्त्रियाँ क्रान्ति में लग जाएँ-
मुझे ऐसा लगता है कि स्त्रियों का अभी तक राजनीति में प्रवेश ना करना या उन्हें प्रवेश ना करने देने के पीछे ईश्वर ने एक बहुत बड़ा लक्ष्य छिपा रखा है । विनोबा भावे जी के विचार में ।
“अब स्त्री शक्ति को आगे आना चाहिए । वे समाज क्रान्ति के काम में लग जाएँ । राजनीति से मुक्त होकर स्त्रियाँ अगर राष्ट्र निर्माण कार्य में लग जाएँगी, तो निश्चय ही राष्ट्र प्रगति करेगा । किसी भी पार्टी में ना फंसकर स्वतंत्र बुद्धि से समाज का नेतृत्व करने के लिये स्त्रियाँ आगे आएंगी, तब आज की गुत्थियाँ सुलझेंगी और दुनिया को बहुत मदद मिलेगी । ऐसा मेरा विश्वास है” ।
भले ही हिंसा में स्त्री पुरूष से पीछे हो परन्तु मेरा विश्वास है कि अहिंसा में स्त्रियाँ पुरूषों से बहुत आगे जा सकती हैं । विनोबा जी के विचारों से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि इस पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को हमेशा दबाया, डराया, कुचला गया है । अतः आज समय आ गया है कि देश और दुनियाँ को नई दिशा देने वाले इस ‘सम्पूर्ण स्वराज्य क्रान्ति अभियान’ की बागडौर महिलाओं के ही हाथ में हो ।‘सम्पूर्ण स्वराज्य क्रान्ति अभियान’ के मुख्य पदों व कार्यों के कराने की ज़िम्मेदारी महिलाओं के ही हाथों में हो और पुरूष उनके सहयोगियों के रूप में ही कार्य करें, सहायकों के रूप में ही कार्य करें । यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए । खासतौर पर धन से सम्बन्धित जितनी भी ज़िम्मेदारियां हैं जैसे- सैलरी देना, ख़रीददारी करना, लॉन से सम्बन्धित कोई भी कार्य हो वह सब महिलाओं के हाथों में होना चाहिए ।